बेमानी है रेल किराये में बढोतरी को लेकर हायतौबा

रेलवे के लिए मुमकिन नहीं घाटे के बावजूद विष्वस्तरीय सेवाएं दे पाना

आप ही बताईये, अगर किसी को दषकों तक उसकी जरूरतों की तुलना में कम पारिश्रमिक अदा किया जाता रहा है तो वह क्या करेगा? आप मुझे ईमानदारी से बताईये, उस सूरत में आप क्या करेंगे जब आप लाखों लोगों को अपनी सेवाएं प्रदान करते हैं फिर भी घाटे से भी उबर पाने की स्थिति में नहीं आ पाते हैं? हर विपक्षी दल रेल किराये में वृद्वि होने पर आक्रोष में आ जाता है, पर क्या उनमें से कोई इसे उचित ठहरा पाएगा कि क्यों केंद्र सरकार का यह कदम आम लोगों के लिए बाधक है? अर्थषास्त्र का एक सरल नियम बताता है कि कोई भी उत्पादक इकाई बगैर कुछ अर्जित किए लंबे समय तक सुरक्षित बची नहीं रह सकती। और अगर आप उम्मीद करते हैं कि भारतीय रेलवे घाटा उठाकर आपको सेवाएं प्रदान करती रहे तो एक दिन आप यहां तक कि बैंकिंग, दूरसंचार तथा अन्य सेक्टरों से भी अपेक्षा करने लगेंगे कि वे भी घाटा उठाकर आपको सेवाएं प्रदान करें।

हर दूसरे दिन हमें खबरें मिलती हैं कि अनुचित सिगनल प्रणाली के कारण रेल दुर्घटनाएं हो गईं। और फिर हम इसके दुश्परिणाम के लिए रेल मंत्रालय को जिम्मेदार ठहराते हैं पर हम भूल जाते हैं कि किसी भी आधुनिकता या अपगे्रडिंग के लिए फंड की जरूरत होती है। क्या आप अपने खर्च को अपग्रेड करने से पहले बढ़ी हुई आय संभावनाओं की अपेक्षा या उम्मीद नहीं करेंगे? यहां यह गौरतलब है कि रेल किरायों में वृद्वि की योजना यूपीए 2 के रेल मंत्री मल्लिकार्जुन खडगे ने बनाई थी, लेकिन 2014 के चुनावों में हार की संभावना को भांपते हुए सरकार ने इस योजना के क्रियान्वयन में देरी कर दी जिससे कि नई सरकार को इसका खामियाजा भुगतना पड़े। यूपीए के षासनकाल में सब्सिडियों का बोलबाला था लेकिन वे आखिर कब तक काम करतीं। रेल प्रणाली की अव्यवस्था पर विख्यात विषेशज्ञों एवं यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी चिंता जताई है। अब हम इस अंतर्निहित तथ्य की विवेचना करें कि आखिर क्यों राजनीतिक दल और नेता रेल किरायों में वृद्वि से बचते रहे हैं? रेलवे भारत के आम लोगों से जुड़ा वह संवेदनषील क्षेत्र है जो चुनावों के दौरान मतदाताओं में तबदील हो जाते हैं। ममता बनर्जी से लेकर लालू प्रसाद यादव, नीतिष कुमार और पवन बंसल तक किसी भी रेल मंत्री ने इससे जुड़ी वास्तविक चिंताओं की पड़ताल करने की कभी कोषिष तक नहीं की। बल्कि उन्होंने आम आदमी को लुभाने की उन्हीं पुरानी नीतियों को कायम रखा जिसने आखिरकार राश्ट्ीय स्तर पर भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए घोर अव्यवस्था की स्थिति पैदा कर दी।
आपको श्री दिनेष त्रिवेदी का वाकया भी याद होगा जिन्हें केवल इस बात के लिए रेलवे मंत्रालय से हटा दिया गया था कि उन्होंने रेल किराये में बढोतरी की सिफारिष की थी। हालांकि उनके पास उनके प्रस्ताव को उचित ठहराने से जुड़ी महत्वपूर्ण गणना और आंकड़े भी थे, लेकिन किसी भी राजनीतिक दल के पास इतना साहस नहीं था कि वे वोट बैंक से पहले भारतीय अर्थव्यवस्था की बात सोचते। यह स्पश्ट है कि यूपीए 2 ने 2014 के चुनावों में हार का अनुमान पहले ही लगा लिया था और इसलिए उन्होंने ऐसी स्थिति पैदा कर दी जिसमें नई सरकार के लिए किसी भी आर्थिक सुधार को प्रारंभ करना बेहद समस्यापूर्ण होता। और फिर आम जनता, जो जब सेवाओं की गुणवत्ता की वैष्विक मानदंडों के साथ तुलना करती है तो यह याद रखना भूल जाती है कि वह उसके लिए क्या योगदान दे रही है।

अब हम पिछले कुछ वर्शो में रेलवे में आई उस तेज गिरावट और कुछ कामचलाउ उपायों पर भी विचार करंे। 2004 से देष की आबादी रेलगाड़ियों की जुड़ने वाली संख्या की तुलना में बेहद तेज गति से बढ़ी है। पर इसमें आम आदमी को मिलने वाली सुविधाओं में मुष्किल से कोई वृद्वि हुई है, वह चाहे सुरक्षा के लिहाज से हो या फिर बुनियादी जरूरतों, उपलब्धता या गाड़ियों के सही षिडयूल पर चलने के लिहाज से हो। भारतीय रेलवे की आर्थिक संरचना को समझना मुष्किल कार्य है जहां सप्लाई की तुलना में मांग काफी अधिक है जबकि वित्तीय रिपोर्ट हमेषा घाटा ही प्रदर्षित करती है। नए मंत्रालय को स्वच्छता तथा कुषलता बढाने से लेकर सभी पहलुओं पर समुचित ध्यान देना होगा।

अंत में, जब हम यूरोपीय देषों के साथ स्पर्धा करने की बात करते हैं तो हम अपने बुनियादी ढांचागत क्षेत्र को नजरंदाज करते हैं। विदेषों में बुलेट ट्ेन समय पर चलती हैं और उच्च रैंक के मंत्री तक इसका उपयोग करते हैं। दूसरी तरफ, भारतीय रेलवे अक्सर देर से चलती हैं, उनमें दुर्घटनाओं की आषंका काफी अधिक रहती है और षायद ही किसी की सुविधा के अनुकूल साबित होती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि रेल यात्रा का टिकट पाना भी अपने आप में एवरेस्ट पर चढने के समान साबित होता है।

यह कितनी बड़ी त्रासदी है कि जिस रेलवे के पास स्टेषनों, पार्सल आॅफिसों, रेलवे स्टाफ के क्वाटर्स के रूप् में देष भर में बेषुमार और सबसे ज्यादा जमीन है, वह इस बेहद बेषकीमती एसेट का उपयोग बिल्कुल ही नहीं कर पा रहा है। क्या रेल मंत्रालय एयर पोर्ट की तर्ज पर पीपीपी माॅडल पर टेंडर जारी कर षुरू में कम से कम अपने 25 या 50 स्टेषनों पर विष्व स्तरीय सेवाएं नहीं सुलभ करा कर उनका अनुकरण नहीं कर सकता। क्या रेलवे प्लेटफार्मों का निजीकरण एक बेहतर विकल्प नहीं है जिससे कि यह सुनिष्चित हो सके कि वहां एयरपोर्ट की तरह बेहतर सेवाएं मिल सकें? इसके अलावा, क्या एयर ट्ांसपोर्टेषन की तरह प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के लिए कुछ रेलगाड़ियों को भी निजी कंपनियों द्वारा संचालित किए जाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए?

रेलवे की अगाध जमीनों से ही जुड़ा एक दूसरा संजीदा मसला इसके दुरूपयोग का है जिस पर पूरे देष में अवैध झुग्गी झोंपड़ियों और उसके आसपास बजबजाती गंदगी का कब्जा है। इस पर भी अविलंब ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
यही नहीं, पूरे हिन्दुस्तान भर में षरीर की धमनियों की तरह जो रेल की पटरियां फैली हुईं हैं, उसके आसपास की हजारों किलोमीटर जमीन का उपयोग ब्राॅड बैंड से लेकर विभिन्न प्रकार के केबल्स, पाइप लाइन या बिजली के तार डालने के लिए किया जा सकता है और उससे अरबों खरबों का राजस्व उगाहा जा सकता है। इसमें भी निजी कंपनियों को साझीदार बनाया जा सकता है।

रेल दुर्घटनाओं में होने वाली बर्बादियों, जो हमेषा ही चिंता के विशय रहे हैं, का बीमाकरण घरेलू व अंतरराश्ट्ीय बीमा कंपनियों की मदद से किया जा सकता है। आईआरसीटीसी वेबसाइट को इतना सक्षम होना चाहिए कि वह पीक हावर्स में हैवी ट्ैफिक लोड उठा सके।

जब आम जनता ट्ेन की यात्रा के समय की अनिष्चितता के अभाव में अपनी गाढे पसीने की ढेर सारी कमाई को आॅटो, बसों तथा अनुषासित एयरलाइंस से यात्रा करने में खर्च कर रहे हैं तो फिर वाई फाई, स्वच्छता, पीने के साफ पानी, स्वच्छ टायलेट, साफ सुथरे बेड, ट्ेन में एवं रेलवे स्टेषनों पर ताजा खाने के सामान, ट्ेन की फ्रीक्वेंसी, गति, सुरक्षा तथा टिकटों की उपलब्धता जैसी सेवाओं के बेहतर हो जाने की सूरत में लोग बढा हुआ किराया देने में क्यों हिचकिचाहट दिखाएंगे? यहां यह गौर किया जाना चाहिए कि नई सरकार के पास दो विकल्प थे. भारतीय रेल को नुकसान में चलाना या फिर एक ऐसा निर्भीक कदम उठाना जो भविश्य में हो सकने वाली भीशण बर्बादी को रोक सके। नए रेल मंत्री सदानंद गौडा ने साहसपूर्वक दूसरा विकल्प चुना जिसे आम जनता द्वारा न केवल स्वीकार किया जाना चाहिए बल्कि इसे प्रोत्साहित भी किया जाना चाहिए। और विपक्ष को याद रखना चाहिए कि आम जनता ने बदलाव और स्थिर समृद्वि के लिए मतदान किया है इसलिए जो दहषत वे फैला रहे हैं, उससे राजनीतिज्ञों का कोई भी उदेष्य पूरा नहीं होगा।

81 thoughts on “बेमानी है रेल किराये में बढोतरी को लेकर हायतौबा

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